कान्हा तेरे गाँव में खेलने आये हम होली
डूबा तेरे रंग में जग सारा, देख सुरतिया भोली
रंग उड़े, गुलाल उड़े, उड़े चुनरिया धानी
मार रंग, मार पिचकारी, और मटका भर कर पानी
लाल रंग में डूब के लागे जसोदा मात के लाल,
होत गुलाबी रंग जब तब बालम काउ प्यार
हरा जब उड़त रंग बन जाइ सब जन भाई
पीला पीतांबर कान्हा का, सामने खड़े रघुराई
बांके बिहारी के दरसन को, होत बहुत मार धाड़
कान्हा खेलत बाहिर बाल संग, कैसन ये कमाल
अब की ये होरी हमको, सदा रहेगी याद
तन रंग गयो , मन रंग गयो, और मिल गयो प्रेम प्रसाद
रवि खुराना
1 comment:
Very nice poem, reminds of Vrindavan and festivities. Written beautifully... and there's certain rawness which is extremly appealing and soothing.
Kudos!!!!!!
Three Cheers!!!!
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