Thursday, February 23, 2017

मुझे कुछ नहीं पता

मैं जानता हूँ कि मेरी हिंदी अच्छी नही है , और रविश कुमार जितनी तो बिलकुल भी नही है, लेकिन इस लेख को हिंदी में लिखना बहुत जरुरी था।

कारण ये है कि मैं दिल्ली में रहता हूँ , असली भारत से कोसो दूर, क्योंकि असली भारत तो गाँव में बसता है ना, और इसपर मैं एक पुरुष भी हु, मध्यम वर्गीय परिवार से आता हूं और उस पर कम्बख्त जनरल केटेगरी से आता हूँ।

मेरा असली भारत से रूबरू रविश कुमार ने ही कराया, जहाँ एक और सभी इंग्लिश चैनल हवाई और बॉलीवुड की ही बातें कर रहे थे और  हिंदी न्यूज़ 'चैन से सोना है तो जाग जाओ' और सास बहू और साज़िश की ही बात कर रहे थे,  वहीँ रविश कुमार हिंदी न्यूज़ जगत में उम्मीद की किरण बन कर आये।

नाम में दम, आवाज़ में दम, और हिस्टरी , पॉलिटिक्स की अनूठी नॉलेज।

आपकी कवरेज हो या डिबेट , आपके व्यंग, सरकस्म और satire को देख के सभी लोग मोहित हो जाते हैं, अब बात करते हैं अन्याय के खिलाफ, अमीर का गरीब पे, ऊँची जाती का नीची जाति पे, हिन्दुओ का मुस्लिम पे, अच्छा लगा कि कोई तो सच की बात करता है, लेकिन फिर धीरे धीरे पैटर्न दिखने लगा, आपका 'कौन जात हो?' तो अब विश्व प्रसिद्ध है।

आपकी हर मुद्दे मैं दलित विरोधी, गरीब विरोधी, माइनॉरिटी विरोधी गतिविधियों की बात ढूंढने की क्षमता का क्या कहना, बीजेपी की गवर्मेंट से आपने पूरे 60 सालो का हिसाब मांग डाला, स्क्रीन भी काली की, लेकिन साहब असली स्क्रीन तो अब काली हुई है, जब सुना के आप तो पांडे जी निकले, वो भी ऐसे वैसे नही, कांग्रेस वाले बृजेश पाण्डेय के भाई, अरे भाई वो भी ऐसे वैसे नही, जिनपे बलात्कार और मानव तस्करी का आरोप है, बिहार में तो सरकार और पुलिस भी मोदी जी की नही है, इसका आरोप भी उनपे नहीं लगा पाओगे आप।

आज वही मीडिया जो बुझती चिंगारी को भी आग बना देता है, आपके भाई के बारे में चुप है, आप भी चुप हो।
लेकिन मैं भी क्या कहने लगा, ये कोई पहली बार तो हो नही रहा।

वही मीडिया जिसको कन्हिया कुमार में लीडर दिखता है और ABVP मैं गुंडे,
वही मिडिया जिसको भंसाली को पड़े थप्पड़ में असहिष्णुता दिखती है, और हिन्दू आतंकवाद दिखता है, उसको बम विस्फोट में मज़हब नही दिखता।

अभी तारेक फ़तेह की जश्ने रेख्ता में हुई पिटाई तो हमारी गंगा जमुनी तहज़ीब का एक उदहारण था, कोई इनटॉलेरेंस नही।

कश्मीर में मरने वाले फ़ौजी लालची हैं, बुरे  है, और पत्थर फेंकने वाले मजबूर।

कश्मीरी पंडितों से बुरा तो कोई हुआ ही नही।

खैर में किसी को क्या कहूँ, मैं तो दिल्ली शहर में रहने वाला माध्यम वर्गीय जनरल केटेगरी का पुरुष हूं, मुझे कुछ नही पता।

रवि 'कुमार' खुराना

Sunday, February 19, 2017

वज़ह

जहां जाने की कोई वज़ह ना हो, वहाँ जाने का लुत्फ़ कुछ और ही है

अपना दिल

मैंने दिल अपने से ही आशिक़ी कर ली
ना दिल लेना पड़ा, और ना देना पड़ा
ना बहा अश्क़ एक भी इन आँखों से
जुदाई का दर्द भी ना  सहना पड़ा

रवि खुराना